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वीर सावरकर |
28 मई भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य वीर सावरकर का जन्मदिवस है, जो महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता तो थे ही, एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय भी सावरकर को जाता है।
क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और हिंदुत्व के प्रणेता विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट भागुर गाँव में धार्मिक और राष्ट्रीय विचारों वाले दामोदर पन्त सावरकर एवं राधाबाई के घर 28 मई 1883 में हुआ था। उनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया और इसके सात वर्ष बाद सन् 1889 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधार गए। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला और अनेकों कष्ट सहते हुए भी अपनी सहधर्मिणी के साथ मिलकर अपने छोटे भाई-बहनों का लालन पालन किया। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में बड़े भाई गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा।
बचपन से ही मेधावी छात्र रहे विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और साथ ही अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली कुछ कविताएँ भी लिखी, जिन्हें सुनना और पढना अपने आप में स्वर्गिक आनंद देता है। वीर सावरकर के हृदय में छात्र जीवन से ही ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह के विचार उत्पन्न हो गए और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित हो उन्होंने मातृभूमि को स्वतंत्र कराने की प्रेरणा ली। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया और शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला प्रज्ज्वलित कर दी।
आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया और इस हेतु सहायता करने के सभी संभव प्रयत्न किये। इसी बीच सन् 1901 में ही रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ, जिसके बाद उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी०ए० किया, जहाँ पर भी वे युवकों में बलिदानी भावना जागृत करते थे। 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में पूना में विदेशी वस्त्रों कि होली जलाकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की। तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें लन्दन में रह रहे क्रान्तिधर्मा श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति मिली।
लन्दन स्थित उनके इंडिया हाउस से जुड़ना सावरकर जी के जीवन में मील का पत्थर सिद्ध हुआ क्योंकि यहाँ ना केवल उन्हें समान विचारधारा वाले लोगों से मिलने का अवसर मिला बल्कि अपने विचारों के प्रकटीकरण का उचित मंच भी। 10 मई 1907 को श्यामजी ने इडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई, जिस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। ये अपने आप में एक बहुत बड़ी बात थी क्योंकि इसके पहले इतिहासकार इस घटना को ब्रिटिश नजरिये से देखकर ग़दर या सिपाही विद्रोह की संज्ञा देते थे, परन्तु सावरकर ने भारतीय नजरिये से इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की उपमा दी। इसी के बाद इतिहासकारों में उस घटना को देखने की एक नयी दृष्टि उत्पन्न हुयी जिसका पूरा श्रेय सावरकर को जाता है।
जून, 1908 में मराठी भाषा में उनकी पुस्तक द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में कुछ उत्साही युवाओं ने इसका अंग्रेजी अनुवाद कर इसे गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित कराया और फिर इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। भारतीय क्रांतिकारियों की लिए ये पुस्तक गीता के समान प्रेरणा देने वाली सिद्ध हुयी और इसकी लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगे जा सकता है कि इसके कई संस्करण प्रकाशित किये गए। हालैंड में प्रकाशित प्रथम संस्करण के बाद इसका द्वितीय संस्करण अमेरिका में ग़दर पार्टी के लाला हरदयाल ने, तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह ने और चतुर्थ संस्करण सुदूर पूर्व में नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने प्रकाशित करवाया। देश की कई भाषाओँ में इसका अनुवाद किया गया और क्रांतिपथ के राही इसे अपने प्रेरणाश्रोत के रूप में स्वीकार करने लगे। इस बीच मराठी भाषा में लिखी मूल प्रति पेरिस में मैडम भीखा जी कामा के पास सुरक्षित रही जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ़्रांस के हालात बिगड़ने पर अभिनव भारत के डाक्टर कौतिन्हो को सौंप दिया। लगभग 40 वर्षों तक किसी धार्मिक ग्रन्थ की तरह रक्षा करने के बाद उन्होंने इसे रामलाल बाजपेयी और डाक्टर मुंजे को सौंप दिया जिनसे ये मूल प्रतिलिपि पुनः वीर सावरकर को प्राप्त हुयी।
इसी बीच मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। उन्होंने अंग्रेजों के गढ़ लन्दन में भी क्रांति की ज्वाला को बुझने नहीं दिया और उन्हीं की प्रेरणा से क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा ने सर लॉर्ड कर्जन की हत्या करके भारतीयों के अपमान का प्रतिशोध ले लिया। उनकी गतिविधिओं और लेखों से लन्दन भी काँप उठा और अंततः 13 मार्च 1910 को उन्हें लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया। 8 जुलाई 2010 को जब उन्हें लंदन से बंदी बनाकर भारत लाया जा रहा था, उस समय वह सिपाहियों को चकमा देकर समुद्र में छलांग लगाकर तैरते हुए फ़्रांस के मार्सेलिस के सागर तट की दीवार पर चढ़कर मार्सेलिस बंदरगाह पर जा पहुंचे। उनके इस साहसी कार्य के कारण पूरा विश्व हिल उठा था तथा वैश्विक प्रतिक्रिया होकर पूरे विश्व का ध्यान भारत में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुआ।
सावरकरजी का समुद्र में छलांग लगाकर मार्सेलिस पहुँचने का उपक्रम ब्रिटिशों द्वारा उन्हें अवैध तरीके से पुनः हिरासत में लेने के कारण विफल भले ही रहा हो फिर भी उनकी इस छलांग के कारण पूरे विश्व में तहलका मच गया और जो तीव्र वैश्विक प्रतिक्रिया हुई उसका फ्रांस की आंतरिक राजनीति पर दूरगामी परिणाम हुआथा और आगे चलकर फ्रांस के प्रधानमंत्री को इस मामले में इस्तीफा देना पडा था। पूरे विश्व के स्वतंत्रता प्रेमी जनमत ने इसे नापसंद किया। सावरकरजी को फिर से फ्रांस सरकार को सौंपा जाए की मांग पूरे फ्रांस ही नहीं अपितु पूरे विश्व में हुई। इस तीव्र प्रतिक्रिया से फ्रांस के सार्वभौमत्व को आंच पहुंची और और फ़्रांस में ब्रिटिश सरकार की कार्यवाही के विरोध में आन्दोलन शुरू हो गया जिसका समर्थन विश्व भर के जाने माने लोगों ने किया| अनवरत तीव्र आलोचना के कारण ब्रिटेन को झुकना पडा और सावरकरजी की फ्रांस की भूमि पर किए गए अवैध हिरासत के मामले को अंतर्राष्ट्रीय हेग न्यायलय को सौंपने का करार करना पडा।
सावरकरजी के इस महान पराक्रम से पूरी दुनिया हिल उठी और भारत को भी विश्व प्रसिद्धि मिली। ऐसे महान पराक्रमी वीर सावरकरजी के 26 फरवरी 2003 के पुण्य स्मरण दिवस पर भारत की संसद में तैल चित्र को प्रतिष्ठित कर उनके प्रति समग्र राष्ट्र की श्रद्धा अर्पण करने के अवसर पर अत्यंत श्रद्धा एवं प्रसन्नता से राष्ट्रपति श्री एपीजे कलाम ने वीर सावरकरजी की ऐतिहासिक समुद्र छलांग का उल्लेख कर एक अत्यंत महत्वपूर्ण विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ''किसी व्यक्ति के द्वारा राष्ट्रहित महान कार्य किए जाने पर, राष्ट्र को चाहिए कि उस व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य को देखें, उसके द्वारा किया गया छोटा काम भी यदि राष्ट्र की दृष्टि से बडा हो तो उस काम का सम्मान करना मेरा कर्तव्य है। अतः आज की मेरी उपस्थिति कर्तव्य के रुप में है।"
उन पर मुकदमा चलाकर 24 दिसंबर, 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी और इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया, जहाँ कारावास में ही 21 वर्षों बाद वीर सावरकर की मुलाकात अपने बड़े भाई से हुई, जब वे दोनों कोल्हू से तेल निकालने के बाद जमा कराने के लिए पहुंचे थे। अपार कष्ट सहते और अपने को तिल तिल गलाते सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी।
उसके बाद सावरकर ने स्वयं को हिंदुत्व के लिए समर्पित कर दिया क्योंकि उनको अनुभूति हो चुकी थी कि सशक्त हिन्दू के बिना सशक्त भारत नहीं बन सकता। 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये। उन्होंने हिन्दुओ के सैनिकीकरण की वकालत की और इस हेतु घूम घूम कर हिन्दुओं को सेना में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जिसके सदपरिणाम बाद में सामने आये, जो उनकी दूरदृष्टि को सिद्ध करते हैं। उन्हीं की सलाह पर नेता जी बोस भारत से चुपचाप निकल कर विदेश चले गए और आज़ाद हिन्द फ़ौज के माध्यम से देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी। उन्होंने भारत विभाजन का प्रबल विरोध किया और स्वतंत्रता प्राप्ति पर कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं।
5 फरवरी 1948 को उन पर गान्धी-वध का आरोप लगाकर उन्हें कांग्रेस सरकार ने प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे उन्हें बाद में न्यायालय के माध्यम से मुक्ति मिली। मई, 1952 में पुणे की एक विशाल सभा में उन्होंने अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग कर दिया। परन्तु अपनों की मृत्यु, देश की स्थिति और सरकारी उदासीनता ने उनके शरीर को तोड़ कर रख दिया था और उनका स्वास्थय तेजी से गिरने लगा था। 1 फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया और 26 फरवरी 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः 10 बजे उन्होंने पार्थिव शरीर को त्याग दिया।
दुखद है कि आज की पीढ़ी सावरकर को बिसरा चुकी है और हमारा सत्तातंत्र इस महान सेनानी को लोगों कि स्मृति से दूर करने के अपने उद्देश्य में लगभग सफल हो गया है| परन्तु फिर भी कुछ प्रयास उनकी स्मृति को अक्षुण बनाये रखने की दिशा में किये गए हैं। इसमें इंदिरा गाँधी की सरकार द्वारा उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी करना, अटल जी की सरकार द्वारा संसद में उनका चित्र लगाना और पोर्ट ब्लेयर के विमानक्षेत्र का नाम वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखना आदि प्रमुख हैं। 1996 में मलयालम में प्रसिद्ध मलयाली फिल्म-निर्माता प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फिल्मसजा -ए-काला पानी में सावरकर जी के भी बारे में वर्णन किया गया जिसमें अन्नू कपूर ने सावरकर का अभिनय किया था। 2001 में वेद राही और सुधीर फड़के ने एक बायोपिक चलचित्र बनाया- वीर सावरकर। अपने निर्माण के कई वर्षों के बाद यह रिलीज़ हुई, जिसमें सावरकर का चरित्र शैलेन्द्र गौड़ ने किया है। हमारा कर्तव्य है कि हम स्वतंत्रता संग्राम के इस महान योद्धा की स्मृति को अक्षुण रखें| उन्हें कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजली 🙏
भारतीय इतिहास को पुनर्जीवित कर हम सबके बीच निर्मल-निश्छल अबाध ज्ञान की धारा बहाने वाले हमारे अग्रज विशाल अग्रवाल जी की कलम से 🖋🖋🖋🖋🖋









