Saturday, 27 May 2017

"वीर" सावरकर

वीर सावरकर 


28 मई भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य वीर सावरकर का जन्मदिवस है, जो महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता तो थे ही, एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय भी सावरकर को जाता है।

क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और हिंदुत्व के प्रणेता विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट भागुर गाँव में धार्मिक और राष्ट्रीय विचारों वाले दामोदर पन्त सावरकर एवं राधाबाई के घर 28 मई 1883 में हुआ था। उनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया और इसके सात वर्ष बाद सन् 1889 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधार गए। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला और अनेकों कष्ट सहते हुए भी अपनी सहधर्मिणी के साथ मिलकर अपने छोटे भाई-बहनों का लालन पालन किया। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में बड़े भाई गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा।

बचपन से ही मेधावी छात्र रहे विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और साथ ही अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली कुछ कविताएँ भी लिखी, जिन्हें सुनना और पढना अपने आप में स्वर्गिक आनंद देता है। वीर सावरकर के हृदय में छात्र जीवन से ही ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह के विचार उत्पन्न हो गए और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित हो उन्होंने मातृभूमि को स्वतंत्र कराने की प्रेरणा ली। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया और शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला प्रज्ज्वलित कर दी।

आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया और इस हेतु सहायता करने के सभी संभव प्रयत्न किये। इसी बीच सन् 1901 में ही रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ, जिसके बाद उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी०ए० किया, जहाँ पर भी वे युवकों में बलिदानी भावना जागृत करते थे। 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में पूना में विदेशी वस्त्रों कि होली जलाकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की। तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें लन्दन में रह रहे क्रान्तिधर्मा श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति मिली।

लन्दन स्थित उनके इंडिया हाउस से जुड़ना सावरकर जी के जीवन में मील का पत्थर सिद्ध हुआ क्योंकि यहाँ ना केवल उन्हें समान विचारधारा वाले लोगों से मिलने का अवसर मिला बल्कि अपने विचारों के प्रकटीकरण का उचित मंच भी। 10 मई 1907 को श्यामजी ने इडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई, जिस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। ये अपने आप में एक बहुत बड़ी बात थी क्योंकि इसके पहले इतिहासकार इस घटना को ब्रिटिश नजरिये से देखकर ग़दर या सिपाही विद्रोह की संज्ञा देते थे, परन्तु सावरकर ने भारतीय नजरिये से इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की उपमा दी। इसी के बाद इतिहासकारों में उस घटना को देखने की एक नयी दृष्टि उत्पन्न हुयी जिसका पूरा श्रेय सावरकर को जाता है।

जून, 1908 में मराठी भाषा में उनकी पुस्तक द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में कुछ उत्साही युवाओं ने इसका अंग्रेजी अनुवाद कर इसे गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित कराया और फिर इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। भारतीय क्रांतिकारियों की लिए ये पुस्तक गीता के समान प्रेरणा देने वाली सिद्ध हुयी और इसकी लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगे जा सकता है कि इसके कई संस्करण प्रकाशित किये गए। हालैंड में प्रकाशित प्रथम संस्करण के बाद इसका द्वितीय संस्करण अमेरिका में ग़दर पार्टी के लाला हरदयाल ने, तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह ने और चतुर्थ संस्करण सुदूर पूर्व में नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने प्रकाशित करवाया। देश की कई भाषाओँ में इसका अनुवाद किया गया और क्रांतिपथ के राही इसे अपने प्रेरणाश्रोत के रूप में स्वीकार करने लगे। इस बीच मराठी भाषा में लिखी मूल प्रति पेरिस में मैडम भीखा जी कामा के पास सुरक्षित रही जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ़्रांस के हालात बिगड़ने पर अभिनव भारत के डाक्टर कौतिन्हो को सौंप दिया। लगभग 40 वर्षों तक किसी धार्मिक ग्रन्थ की तरह रक्षा करने के बाद उन्होंने इसे रामलाल बाजपेयी और डाक्टर मुंजे को सौंप दिया जिनसे ये मूल प्रतिलिपि पुनः वीर सावरकर को प्राप्त हुयी।

इसी बीच मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। उन्होंने अंग्रेजों के गढ़ लन्दन में भी क्रांति की ज्वाला को बुझने नहीं दिया और उन्हीं की प्रेरणा से क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा ने सर लॉर्ड कर्जन की हत्या करके भारतीयों के अपमान का प्रतिशोध ले लिया। उनकी गतिविधिओं और लेखों से लन्दन भी काँप उठा और अंततः 13 मार्च 1910 को उन्हें लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया। 8 जुलाई 2010 को जब उन्हें लंदन से बंदी बनाकर भारत लाया जा रहा था, उस समय वह सिपाहियों को चकमा देकर समुद्र में छलांग लगाकर तैरते हुए फ़्रांस के मार्सेलिस के सागर तट की दीवार पर चढ़कर मार्सेलिस बंदरगाह पर जा पहुंचे। उनके इस साहसी कार्य के कारण पूरा विश्व हिल उठा था तथा वैश्विक प्रतिक्रिया होकर पूरे विश्व का ध्यान भारत में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुआ।

सावरकरजी का समुद्र में छलांग लगाकर मार्सेलिस पहुँचने का उपक्रम ब्रिटिशों द्वारा उन्हें अवैध तरीके से पुनः हिरासत में लेने के कारण विफल भले ही रहा हो फिर भी उनकी इस छलांग के कारण पूरे विश्व में तहलका मच गया और जो तीव्र वैश्विक प्रतिक्रिया हुई उसका फ्रांस की आंतरिक राजनीति पर दूरगामी परिणाम हुआथा और आगे चलकर फ्रांस के प्रधानमंत्री को इस मामले में इस्तीफा देना पडा था। पूरे विश्व के स्वतंत्रता प्रेमी जनमत ने इसे नापसंद किया। सावरकरजी को फिर से फ्रांस सरकार को सौंपा जाए की मांग पूरे फ्रांस ही नहीं अपितु पूरे विश्व में हुई। इस तीव्र प्रतिक्रिया से फ्रांस के सार्वभौमत्व को आंच पहुंची और और फ़्रांस में ब्रिटिश सरकार की कार्यवाही के विरोध में आन्दोलन शुरू हो गया जिसका समर्थन विश्व भर के जाने माने लोगों ने किया| अनवरत तीव्र आलोचना के कारण ब्रिटेन को झुकना पडा और सावरकरजी की फ्रांस की भूमि पर किए गए अवैध हिरासत के मामले को अंतर्राष्ट्रीय हेग न्यायलय को सौंपने का करार करना पडा।

सावरकरजी के इस महान पराक्रम से पूरी दुनिया हिल उठी और भारत को भी विश्व प्रसिद्धि मिली। ऐसे महान पराक्रमी वीर सावरकरजी के 26 फरवरी 2003 के पुण्य स्मरण दिवस पर भारत की संसद में तैल चित्र को प्रतिष्ठित कर उनके प्रति समग्र राष्ट्र की श्रद्धा अर्पण करने के अवसर पर अत्यंत श्रद्धा एवं प्रसन्नता से राष्ट्रपति श्री एपीजे कलाम ने वीर सावरकरजी की ऐतिहासिक समुद्र छलांग का उल्लेख कर एक अत्यंत महत्वपूर्ण विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ''किसी व्यक्ति के द्वारा राष्ट्रहित महान कार्य किए जाने पर, राष्ट्र को चाहिए कि उस व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य को देखें, उसके द्वारा किया गया छोटा काम भी यदि राष्ट्र की दृष्टि से बडा हो तो उस काम का सम्मान करना मेरा कर्तव्य है। अतः आज की मेरी उपस्थिति कर्तव्य के रुप में है।"

उन पर मुकदमा चलाकर 24 दिसंबर, 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी और इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया, जहाँ कारावास में ही 21 वर्षों बाद वीर सावरकर की मुलाकात अपने बड़े भाई से हुई, जब वे दोनों कोल्हू से तेल निकालने के बाद जमा कराने के लिए पहुंचे थे। अपार कष्ट सहते और अपने को तिल तिल गलाते सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी।

उसके बाद सावरकर ने स्वयं को हिंदुत्व के लिए समर्पित कर दिया क्योंकि उनको अनुभूति हो चुकी थी कि सशक्त हिन्दू के बिना सशक्त भारत नहीं बन सकता। 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये। उन्होंने हिन्दुओ के सैनिकीकरण की वकालत की और इस हेतु घूम घूम कर हिन्दुओं को सेना में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जिसके सदपरिणाम बाद में सामने आये, जो उनकी दूरदृष्टि को सिद्ध करते हैं। उन्हीं की सलाह पर नेता जी बोस भारत से चुपचाप निकल कर विदेश चले गए और आज़ाद हिन्द फ़ौज के माध्यम से देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी। उन्होंने भारत विभाजन का प्रबल विरोध किया और स्वतंत्रता प्राप्ति पर कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं।

5 फरवरी 1948 को उन पर गान्धी-वध का आरोप लगाकर उन्हें कांग्रेस सरकार ने प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे उन्हें बाद में न्यायालय के माध्यम से मुक्ति मिली। मई, 1952 में पुणे की एक विशाल सभा में उन्होंने अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग कर दिया। परन्तु अपनों की मृत्यु, देश की स्थिति और सरकारी उदासीनता ने उनके शरीर को तोड़ कर रख दिया था और उनका स्वास्थय तेजी से गिरने लगा था। 1 फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया और 26 फरवरी 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः 10 बजे उन्होंने पार्थिव शरीर को त्याग दिया।

दुखद है कि आज की पीढ़ी सावरकर को बिसरा चुकी है और हमारा सत्तातंत्र इस महान सेनानी को लोगों कि स्मृति से दूर करने के अपने उद्देश्य में लगभग सफल हो गया है| परन्तु फिर भी कुछ प्रयास उनकी स्मृति को अक्षुण बनाये रखने की दिशा में किये गए हैं। इसमें इंदिरा गाँधी की सरकार द्वारा उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी करना, अटल जी की सरकार द्वारा संसद में उनका चित्र लगाना और पोर्ट ब्लेयर के विमानक्षेत्र का नाम वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखना आदि प्रमुख हैं। 1996 में मलयालम में प्रसिद्ध मलयाली फिल्म-निर्माता प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फिल्मसजा -ए-काला पानी में सावरकर जी के भी बारे में वर्णन किया गया जिसमें अन्नू कपूर ने सावरकर का अभिनय किया था। 2001 में वेद राही और सुधीर फड़के ने एक बायोपिक चलचित्र बनाया- वीर सावरकर। अपने निर्माण के कई वर्षों के बाद यह रिलीज़ हुई, जिसमें सावरकर का चरित्र शैलेन्द्र गौड़ ने किया है। हमारा कर्तव्य है कि हम स्वतंत्रता संग्राम के इस महान योद्धा की स्मृति को अक्षुण रखें| उन्हें कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजली 🙏




भारतीय इतिहास को पुनर्जीवित कर हम सबके बीच निर्मल-निश्छल अबाध ज्ञान की धारा बहाने वाले हमारे अग्रज विशाल अग्रवाल जी की कलम से 🖋🖋🖋🖋🖋

Friday, 19 May 2017

नाथुराम गोडसे की जयंती विशेष ...



आज नाथुराम गोडसे की जन्म तिथि है !

वर्षों बाद किसी एक कवि ने दबे सच को फिर से उजागर करने की कोशिश की है !

आप सभी  साहित्य प्रेमी पाठकों के लिए कवि की मूल कविता नीचे विस्तार से लिखी गयी है !
 

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माना गांधी ने कष्ट सहे थे ,  
अपनी पूरी निष्ठा से ।
और भारत प्रख्यात हुआ है,
उनकी अमर प्रतिष्ठा से ॥

किन्तु अहिंसा सत्य कभी,
अपनों पर ही ठन जाता है ।
घी और शहद अमृत हैं पर ,
मिलकर के विष बन जाता है।

अपने सारे निर्णय हम पर,
थोप रहे थे गांधी जी ।
तुष्टिकरण के खूनी खंजर,
घोंप रहे थे गांधी जी ॥

महाक्रांति का हर नायक तो,
उनके लिए खिलौना था ।
उनके हठ के आगे,      
जम्बूदीप भी बौना था ॥

इसीलिये भारत अखण्ड,
अखण्ड भारत का दौर गया ।
भारत से पंजाब, सिंध,
रावलपिंडी,लाहौर गया ॥

तब जाकर के सफल हुए,    
जालिम जिन्ना के मंसूबे ।
गांधी जी अपनी जिद में ,
 पूरे भारत को ले डूबे ॥

भारत के इतिहासकार,
थे चाटुकार दरबारों में ।
अपना सब कुछ बेच चुके थे,
नेहरू के परिवारों में ॥

भारत का सच लिख पाना,
था उनके बस की बात नहीं ।
वैसे भी सूरज को लिख पाना,
जुगनू की औकात नहीं ॥

आजादी का श्रेय नहीं है,  
गांधी के आंदोलन को ।
इन यज्ञों का हव्य बनाया,
शेखर ने पिस्टल गन को ॥

जो जिन्ना जैसे राक्षस से,
मिलने जुलने जाते थे ।
जिनके कपड़े लन्दन, पेरिस,
दुबई में धुलने जाते थे ॥

कायरता का नशा दिया है,
गांधी के पैमाने ने ।
भारत को बर्बाद किया,  
नेहरू के राजघराने ने ॥

हिन्दू अरमानों की जलती,
एक चिता थे गांधी जी ।
कौरव का साथ निभाने वाले,
भीष्म पिता थे गांधी जी ॥

अपनी शर्तों पर इरविन तक,
को भी झुकवा सकते थे ।
भगत सिंह की फांसी को,  
दो पल में रुकवा सकते थे ।।

मन्दिर में पढ़कर कुरान,            
वो विश्व विजेता बने रहे ।
ऐसा करके मुस्लिम जन,  
मानस के नेता बने रहे ॥

एक नवल गौरव गढ़ने की,
हिम्मत तो करते बापू  ।
मस्जिद में गीता पढ़ने की,
 हिम्मत तो करते बापू  ॥

रेलों में, हिन्दू काट-काट कर,
भेज रहे थे पाकिस्तानी ।
टोपी के लिए दुखी थे वे,    
पर चोटी की एक नहीं मानी ॥

मानों फूलों के प्रति ममता,
खतम हो गई माली में ।
गांधी जी दंगों में बैठे थे,
छिपकर नोवा खाली में ॥

तीन दिवस में श्री राम का,
धीरज संयम टूट गया ।
सौवीं गाली सुन, कान्हा का
चक्र हाथ से छूट गया ॥

गांधी जी की पाक, परस्ती पर
जब भारत लाचार हुआ ।
तब जाकर नाथू,                
बापू वध को मज़बूर हुआ ॥

गये सभा में गांधी जी,        
करने अंतिम प्रणाम ।
ऐसी गोली मारी गांधी को,
याद आ गए श्री राम ॥

मूक अहिंसा के कारण ही
भारत का आँचल फट जाता ।
गांधी जीवित होते तो        
फिर देश,  दुबारा बंट जाता ॥

थक गए हैं हम प्रखर सत्य की
अर्थी को ढोते ढोते ।
कितना अच्छा होता जो      
नेता जी राष्ट्रपिता होते ॥

नाथू को फाँसी लटकाकर
गांधी जो को न्याय मिला ।
और मेरी भारत माँ को    
बंटवारे का अध्याय मिला ॥

लेकिन जब भी कोई भीष्म
कौरव का साथ निभाएगा ।
तब तब कोई अर्जुन रण में
उन पर तीर चलाएगा ॥

अगर गोडसे की गोली      
उतरी ना होती सीने में ।
तो हर हिन्दू पढ़ता नमाज ,
फिर मक्का और मदीने में ॥

भारत की बिखरी भूमि
अब तलक समाहित नहीं हुई ।
नाथू की रखी अस्थि        
अब तलक प्रवाहित नहीं हुई ॥

इससे पहले अस्थिकलश को
सिंधु सागर की लहरें सींचे ।
पूरा पाक समाहित कर लो  
इस भगवा झंडे के नीचें ॥
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(भारत के इस सत्य इतिहास को प्रसारित करने के लिए शेयर अवश्य करें)    

🇮🇳🙏🙏🙏

Monday, 15 May 2017

शहीद सुखदेव की अनसुनी कहानी..



सुखदेव जी का व्यक्तिगत जीवन....

सुखदेव (पंजाबी: ਸੁਖਦੇਵ ਥਾਪਰ, जन्म: 15 मई 1907 मृत्यु: 23 मार्च 1931) का पूरा नाम सुखदेव थापर था। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। उन्हें भगत सिंह और राजगुरु के साथ २३ मार्च १९३१ को फाँसी पर लटका दिया गया था। इनकी शहादत को आज भी सम्पूर्ण भारत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। सुखदेव भगत सिंह की तरह बचपन से ही आज़ादी का सपना पाले हुए थे। ये दोनों 'लाहौर नेशनल कॉलेज' के छात्र थे। दोनों एक ही सन में लायलपुर में पैदा हुए और एक ही साथ शहीद हो गए

सुखदेव थापर का जन्म पंजाब के शहर लायलपुर में श्रीयुत् रामलाल थापर व श्रीमती रल्ली देवी के घर विक्रमी सम्वत १९६४ के फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष सप्तमी तदनुसार १५ मई १९०७ को अपरान्ह पौने ग्यारह बजे हुआ था। जन्म से तीन माह पूर्व ही पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इनके ताऊ अचिन्तराम ने इनका पालन पोषण करने में इनकी माता को पूर्ण सहयोग किया। सुखदेव की तायी जी ने भी इन्हें अपने पुत्र की तरह पाला।

लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिये जब योजना बनी तो साण्डर्स का वध करने में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का पूरा साथ दिया था। यही नहीं, सन् १९२९ में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में राजनीतिक बन्दियों द्वारा की गयी व्यापक हड़ताल में बढ़-चढ़कर भाग भी लिया था। गान्धी-इर्विन समझौते के सन्दर्भ में इन्होंने एक खुला खत गान्धी के नाम अंग्रेजी में लिखा था जिसमें इन्होंने महात्मा जी से कुछ गम्भीर प्रश्न किये थे। उनका उत्तर यह मिला कि निर्धारित तिथि और समय से पूर्व जेल मैनुअल के नियमों को दरकिनार रखते हुए २३ मार्च १९३१ को सायंकाल ७ बजे सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह तीनों को लाहौर सेण्ट्रल जेल में फाँसी पर लटका कर मार डाला गया। इस प्रकार भगत सिंह तथा राजगुरु के साथ सुखदेव भी मात्र २३वर्ष की आयु में शहीद हो गये।

सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को गोपरा, लुधियाना, पंजाब में हुआ था। उनके पिता का नाम रामलाल थापर था, जो अपने व्यवसाय के कारण लायलपुर (वर्तमान फैसलाबाद, पाकिस्तान) में रहते थे। इनकी माता रल्ला देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। दुर्भाग्य से जब सुखदेव तीन वर्ष के थे, तभी इनके पिताजी का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन इनके ताऊ लाला अचिन्त राम ने किया। वे आर्य समाज से प्रभावित थे तथा समाज सेवा व देशभक्तिपूर्ण कार्यों में अग्रसर रहते थे। इसका प्रभाव बालक सुखदेव पर भी पड़ा। जब बच्चे गली-मोहल्ले में शाम को खेलते तो सुखदेव अस्पृश्य कहे जाने वाले बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे।

भगत सिंह से मित्रता

सन 1919 में हुए जलियाँवाला बाग़ के भीषण नरसंहार के कारण देश में भय तथा उत्तेजना का वातावरण बन गया था। इस समय सुखदेव 12 वर्ष के थे। पंजाब के प्रमुख नगरों में मार्शल लॉ लगा दिया गया था। स्कूलों तथा कालेजों में तैनात ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय छात्रों को 'सैल्यूट' करना पड़ता था। लेकिन सुखदेव ने दृढ़तापूर्वक ऐसा करने से मना कर दिया, जिस कारण उन्हें मार भी खानी पड़ी। लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर सुखदेव ने लाहौर के नेशनल कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ पर सुखदेव की भगत सिंह से भेंट हुई। दोनों एक ही राह के पथिक थे, अत: शीघ्र ही दोनों का परिचय गहरी दोस्ती में बदल गया। दोनों ही अत्यधिक कुशाग्र और देश की तत्कालीन समस्याओं पर विचार करने वाले थे। इन दोनों के इतिहास के प्राध्यापक 'जयचन्द्र विद्यालंकार' थे, जो कि इतिहास को बड़ी देशभक्तिपूर्ण भावना से पढ़ाते थे। विद्यालय के प्रबंधक भाई परमानन्द भी जाने-माने क्रांतिकारी थे। वे भी समय-समय पर विद्यालयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करते थे। यह विद्यालय देश के प्रमुख विद्वानों के एकत्रित होने का केन्द्र था तथा उनके भी यहाँ भाषण होते रहते थे।

क्रांतिकारी जीवन
वर्ष 1926 में लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन हुआ। इसके मुख्य योजक सुखदेव, भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण व जयचन्द्र विद्यालंकार थे। 'असहयोग आन्दोलन' की विफलता के पश्चात 'नौजवान भारत सभा' ने देश के नवयुवकों का ध्यान आकृष्ट किया। प्रारम्भ में इनके कार्यक्रम नौतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक विचारों पर विचार गोष्ठियाँ करना, स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम तथा भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता पर विचार आदि करना था। इसके प्रत्येक सदस्य को शपथ लेनी होती थी कि वह देश के हितों को सर्वोपरि स्थान देगा।[1] परन्तु कुछ मतभेदों के कारण इसकी अधिक गतिविधि न हो सकी। अप्रैल, 1928 में इसका पुनर्गठन हुआ तथा इसका नाम 'नौजवान भारत सभा' ही रखा गया तथा इसका केन्द्र अमृतसर बनाया गया।

केंन्द्रीय समिति का निर्माण

सितम्बर, 1928 में ही दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला के खण्डहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। इसमें एक केंन्द्रीय समिति का निर्माण हुआ। संगठन का नाम 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' रखा गया। सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया। सुखदेव के परम मित्र शिव वर्मा, जो प्यार में उन्हें 'विलेजर' कहते थे, के अनुसार भगत सिंह दल के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता, वे एक-एक ईंट रखकर इमारत खड़ी करने वाले थे। वे प्रत्येक सहयोगी की छोटी से छोटी आवश्यकता का भी पूरा ध्यान रखते थे। इस दल में अन्य प्रमुख व्यक्त थे-

चन्द्रशेखर आज़ाद
राजगुरु
बटुकेश्वर दत्त
कुशल रणनीतिकार
'साइमन कमीशन' के भारत आने पर हर ओर उसका तीव्र विरोध हुआ। पंजाब में इसका नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। 30 अक्तूबर को लाहौर में एक विशाल जुलूस का नेतृत्व करते समय वहाँ के डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट स्कार्ट के कहने पर सांडर्स ने लाठीचार्ज किया, जिसमें लालाजी घायल हो गए। पंजाब में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहांत हो गया। उनके शोक में स्थान-स्थान पर सभाओं का आयोजन किया गया। सुखदेव और भगत सिंह ने एक शोक सभा में बदला लेने का निश्चय किया। एक महीने बाद ही स्कार्ट को मारने की योजना थी, परन्तु गलती से उसकी जगह सांडर्स मारा गया। इस सारी योजना के सूत्रधार सुखदेव ही थे। वस्तुत: सांडर्स की हत्या चितरंजन दास की विधवा बसन्ती देवी के कथन का सीधा उत्तर था, जिसमें उन्होंने कहा था, "क्या देश में कोई युवक नहीं रहा?" सांडर्स की हत्या के अगले ही दिन अंग्रेज़ी में एक पत्रक बांटा गया, जिसका भाव था "लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले किया गया।"

गिरफ्तारी
8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार के बहरे कानों में आवाज़ पहुँचाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया। स्वाभाविक रूप से चारों ओर गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ। लाहौर में एक बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई, जिसके फलस्वरूप 15 अप्रैल, 1929 को सुखदेव, किशोरी लाल तथा अन्य क्रांतिकारी भी पकड़े गए। सुखदेव चेहरे-मोहरे से जितने सरल लगते थे, उतने ही विचारों से दृढ़ व अनुशासित थे। उनका गांधी जी की अहिंसक नीति पर जरा भी भरोसा नहीं था। उन्होंने अपने ताऊजी को कई पत्र जेल से लिखे। इसके साथ ही महात्मा गांधी को जेल से लिखा उनका पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो न केवल देश की तत्कालीन स्थिति का विवेचन करता है, बल्कि कांग्रेस की मानसिकता को भी दर्शाता है। उस समय गांधी जी अहिंसा की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की निंदा करते थे। इस पर कटाक्ष करते हुए सुखदेव ने लिखा, "मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।"

सच्चे राष्ट्रवादी

सुखदेव ने तत्कालीन परिस्थितियों पर गांधी जी एक पत्र में लिखा, 'आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन (सविनय अवज्ञा आन्दोलन) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ? 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं। बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है।..... एक दर्जन से अधिक बन्दी सचमुच फांसी के फंदों के इन्तजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ?" सुखदेव ने यह भी लिखा, भावुकता के आधार पर ऐसी अपीलें करना, जिनसे उनमें पस्त-हिम्मती फैले, नितांत अविवेकपूर्ण और क्रांति विरोधी काम है। यह तो क्रांतिकारियों को कुचलने में सीधे सरकार की सहायता करना होगा।' सुखदेव ने यह पत्र अपने कारावास के काल में लिखा। गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक मास बाद 23 अप्रैल, 1931 को 'यंग इंडिया' में छापा।

शहादत
ब्रिटिश सरकार ने सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु पर मुकदमे का नाटक रचा। 23 मार्च, 1931 को उन्हें 'लाहौर सेंट्रल जेल' में फांसी दे दी गई। देशव्यापी रोष के भय से जेल के नियमों को तोड़कर शाम को साढ़े सात बजे इन तीनों क्रांतिकारियों को फाँसी पर लटकाया गया। भगत सिंह और सुखदेव दोनों एक ही सन में पैदा हुए और एक साथ ही शहीद हो गए।

आज शहीदी दिवस है। आज ही के दिन भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु को फांसी दी गई थी। शहादत के इतने साल हो जाने के बावजूद ये आज भी हमारे दिलों में धड़कते हैं। आज आजादी की लड़ाई के उपेक्षित नायक सुखदेव का जिक्र करते हैं। सुखदेव भी भगत सिंह के साथ ‘लाहौर नेशनल कॉलेज’ के छात्र थे। दोनों ही लायलपुर में पैदा हुए और एक ही साथ शहीद हो गए। दुर्भाग्य से आज तक इस महान शहीद का कोई राष्ट्रीय स्मारक नहीं बना है।

कुछ कर गुजरने का जज्बा सुखदेव में बचपन से ही था। कम उम्र में ही पिता के गुजर जाने के बाद सुखदेव का लालन-पालन इनके ताऊ लाला अचिन्त राम ने किया था जो आर्य समाज से प्रभावित थे। इसका प्रभाव सुखदेव पर भी पड़ा और वो अछूत कहे जाने वाले बच्चों को पढ़ाने लगे थे। सुखदेव की उम्र जब करीब 12 साल की थी तब 1919 में हुए जलियांवाला बाग़ में भीषण नरसंहार हुआ। पूरे देश मे जबर्दस्त गुस्सा और उत्तेजना थी। सुखदेव के मन पर भी इस घटना का बड़ा असर हुआ।

लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर सुखदेव ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया और यहीं उनकी मुलाक़ात भगत सिंह के साथ हुई। इन दोनों के इतिहास के अध्यापक ‘जयचंद्र विद्यालंकार’ थे, जिन्होंने इनके अंदर व्यवस्थित क्रांति का बीज डाला। विद्यालय के प्रबंधक भाई परमानंद भी जाने-माने क्रांतिकारी थे। 1926 में लाहौर में ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन हुआ जिसके मुख्य संयोजक सुखदेव थे। इस टीम मे भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण औक जयचंद्र विद्यालंकार जैसे क्रांतिकारी भी थे।

‘असहयोग आन्दोलन’ की विफलता के पश्चात ‘नौजवान भारत सभा’ का मकसद स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम और भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता पर विचार आदि करना था। लेकिन सुखदेव की जिंदगी मे बड़ा मोड तब आया जब सितम्बर, 1928 में ही दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला के खण्डहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। इसमें एक केंद्रीय समिति का निर्माण हुआ। संगठन का नाम ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ रखा गया। सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया। भगत सिंह दल के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता।

HSRA ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ अलख जगाना शुरू किया। सुखदेव ने भगत सिंह, राजगुरु, बटुकेश्वर बत्त, चंज्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर अंग्रेज सरकार की नींव हिलाकर रख दी थी। इसी बीच ‘साइमन कमीशन’ के विरोध करने पर हुए लाठीचार्ज में जब लाला जी का देहांत हो गया तो सुखदेव और भगत सिंह ने ही बदला लेने का फैसला किया। इस सारी योजना के सूत्रधार सुखदेव ही थे। सेंट्रल एसेंबली के सभागार में बम और पर्चे फेंकने और फिर गिरफ़्तारी की घटना और अन्य योजनाओं को भले ही भगत सिंह समेत दूसरे क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया हो लेकिन इतिहासकार कहते हैं कि सुखदेव इस युवा क्रांतिकारी आंदोलन की नींव और रीढ़ थे।

सुखदेव पर किताब लिख चुके डॉक्टर हरदीप सिंह के अनुसार उस समय हुई बैठक में एसेंबली में बम फेंकने का जिम्मा पहले भगत सिंह को नहीं दिया गया था। डॉक्टर हरदीप सिंह आगे लिखते हैं “1929 में सेंट्रल एसेंबली में बम फेंकने के लिए पहले भगत सिंह का नाम नहीं दिया गया था क्योंकि पुलिस को पहले से ही उनकी तलाश थी। क्रांतिकारी नहीं चाहते थे कि भगत सिंह पकड़े जाएं। लेकिन सुखदेव भगत सिंह के नाम पर अड़ गए। उनका कहना था कि भगत सिंह लोगों में जागृति पैदा कर सकते हैं। सुखदेव का तर्क सुनने के बाद भगत सिंह को उनकी बात सही लगी। कई लोगों ने सुखदेव को कठोर दिल भी कहा कि उन्होंने अपने दोस्त भगत सिंह को मौत के मुंह में भेज दिया। किताबों में हमने यही पढ़ा है कि भगत सिंह के गिरफ़्तार होने के बाद सुखदेव बंद कमरे में बहुत रोए थे कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे दोस्त को कुर्बान कर दिया।

जब दिल्ली में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया गया तो चारों ओर से गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ। लाहौर में एक बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई, जिसमें सुखदेव भी अन्य क्रांतिकारियों के साथ पकड़े गए। सुखदेव चेहरे-मोहरे से जितने सरल लगते थे, उतने ही विचारों से दृढ़ व अनुशासित थे। उनका गांधी जी की अहिंसक नीति पर जरा भी भरोसा नहीं था। उन्होंने महात्मा गांधी को जेल से एक पत्र लिखा जो आज भी एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। सुखदेव ने कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए लिखा था “मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।”

सुखदेव ने गांधी जी को ये भी लिखा कि ‘आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन (सविनय अवज्ञा आन्दोलन) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ? 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं। बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है। एक दर्जन से अधिक बंदी सचमुच फांसी के फंदों के इंतजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ?” सुखदेव ने यह पत्र अपने कारावास के काल में लिखा। गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक मास बाद 23 अप्रैल, 1931 को ‘यंग इंडिया’ में छापा।

सांडर्स की हत्या के मामले को ‘लाहौर षड्यंत्र’ के रूप में जाना गया। इस मामले में राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को मौत की सजा सुनाई गई। 23 मार्च 1931 को तीनों क्रांतिकारी हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए लेकिन देश के युवाओं की रगों में वो उबाल ला गए। शहादत के समय सुखदेव की उम्र मात्र 24 साल थी। क्या आज 83 साल बीत जाने के बाद भी हमारा देश अपने इस महान सपूत को उसका वाजिब सम्मान दे पाया है?
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Thursday, 11 May 2017

Your help to the family of martyrs


It is website launched by ministry of home affairs government of india and with the help of actor Akshay Kumar.

Bharatkeveer.gov.in
This Website contains details of soldiers who sacrificed their life to protect our nation.

You can contribute minimum ₹10 (Rupees Ten) to ₹15 lakhs (maximum) according to your ability. If any one soldier get ₹15 lakhs, then he will be removed from the list.

Just think if 50 lacs people out of 125 crore people of india contribute only 10 rupees each. then it will become 5 Crore.

🙏 A humble request that if you cannot contribute, then please forward this message as much as possible.. 🙏 Remember freedom is not free, somebody has already paid for it.

Hamari har ek sass un shahido ki karzdar hai. Kuch yaad unhe bhi karlo jo laut ke ghar na aaye.

#JaiHind #JaiJawan

Superb initiative indeed!!

Wednesday, 10 May 2017

नेहरू की एक और ऐय्याशी .....

इसे भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए  !!
॥ बीते हुए दिन- 12 ॥

॥ जवाहरलाल नेहरू अभिनेत्री नरगिस के मामा थे ॥

नरगिस की नानी दिलीपा मंगल पाण्डेय के ननिहाल के राजेन्द्र पाण्डेय की बेटी थीं... उनकी शादी 1880 में बलिया में हुई थी लेकिन शादी के एक हफ़्ते के अंदर ही उनके पति गुज़र गए थे...दिलीपा की उम्र उस वक़्त सिर्फ़ 13 साल थी...उस ज़माने में विधवाओं की ज़िंदगी बेहद तक़लीफ़ों भरी होती थी...ज़िंदगी से निराश होकर दिलीपा एक रोज़ आत्महत्या के इरादे से गंगा की तरफ़ चल पड़ीं लेकिन रात में रास्ता भटककर मियांजान नाम के एक सारंगीवादक के झोंपड़े में पहुंच गयीं जो तवायफ़ों के कोठों पर सारंगी बजाता था...

मियांजान के परिवार में उसकी बीवी और एक बेटी मलिका थे... वो मलिका को भी तवायफ़ बनाना चाहता था...दिलीपा को मियांजान ने अपने घर में शरण दी...और फिर मलिका के साथ साथ दिलीपा भी धीरेधीरे तवायफ़ों वाले तमाम तौर-तरीक़े सीख गयीं और एक रोज़ चिलबिला की मशहूर तवायफ़ रोशनजान के कोठे पर बैठ गयीं...

रोशनजान के कोठे पर उस ज़माने के नामी वक़ील मोतीलाल नेहरू का आना जाना रहता था जिनकी पत्नी पहले बच्चे के जन्म के समय गुज़र गयी थी...दिलीपा के सम्बन्ध मोतीलाल नेहरू से बन गए...इस बात का पता चलते ही मोतीलाल के घरवालों ने उनकी दूसरी शादी लाहौर की स्वरूप रानी से करा दी जिनकी उम्र उस वक़्त 15 साल थी...इसके बावजूद मोतीलाल ने दिलीपा के साथ सम्बन्ध बनाए रखे...इधर दिलीपा का एक बेटा हुआ जिसका नाम मंज़ूर अली रखा गया...उधर कुछ ही दिनों बाद 14 नवम्बर 1889 को स्वरूपरानी ने जवाहरलाल नेहरू को जन्म दिया...

साल 1900 में स्वरूप रानी ने विजयलक्ष्मी पंडित को जन्म दिया और 1901 में दिलीपा के जद्दनबाई पैदा हुईं...अभिनेत्री नरगिस इन्हीं जद्दनबाई की बेटी थीं...मंज़ूर अली आगे चलकर मंज़ूर अली सोख़्त के नाम से बहुत बड़े मज़दूर नेता बने...और साल 1924 में उन्होंने यह कहकर देशभर में सनसनी फैला दी कि मैं मोतीलाल नेहरू का बेटा और जवाहरलाल नेहरू का बड़ा भाई हूं...

उधर एक रोज़ लखनऊ नवाब के बुलावे पर जद्दनबाई मुजरा करने लखनऊ गयीं तो दिलीपा भी उनके साथ थी...जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के किसी काम से उन दिनों लखनऊ में थे...उन्हें पता चला तो वो उन दोनों से मिलने चले आए...दिलीपा जवाहरलाल नेहरू से लिपट गयीं और रो-रोकर मोतीलाल नेहरू का हालचाल पूछने लगीं...मुजरा ख़त्म हुआ तो जद्दनबाई ने जवाहरलाल नेहरू को राखी बांधी...

साल 1931 में मोतीलाल नेहरू ग़ुज़रे तो दिलीपा ने अपनी चूड़ियां तोड़ डालीं और उसके बाद से वो विधवा की तरह रहने लगीं...

(गुजराती के वरिष्ठ लेखक रजनीकुमार पंड्या जी की क़िताब ‘आप की परछाईयां’ से।)

Tuesday, 9 May 2017

Emmanuel Macron


The next French President is 39 years old.
But that is not the news.
He is married to a 64 year-old, that is still not the news.
His wife was his class teacher 24 years ago...not still the news.
His then class teacher had a daughter who was his class-mate...everybody including his parents thought this teacher's daughter was his girlfriend...nope they were wrong.
He fell in love with his class teacher when he was 15...she was "happily married" with 3 kids...now the "happily married" is relative in this context.
At 17, he promised to marry her. She was at the time 42 years.
They got married in 2007 with our man now 30...well she was almost 55.
Next month he is going to be sworn-in as the President of France 6 months to his 40th birthday while his lovely wife who has 3 adult kids and 7 grandchildren (her first child is two years older than her husband while her second child, the former classmate/sweetheart is the same age as him).
His name is Emmanuel Macron (39) and he is the next President of France.

शरीयत :वर्तमान समस्या

अगर शरीयत में भारत माता की जय बोलना और वंदे मातरम् बोलना कुफ़्र है तो ख़लीफ़ा के अतिरिक्त किसी शासन व्यवस्था में भाग लेना भी कुफ़्र ही है ।

कुरआन में कहीं नही लिखा कि एक दिन लोकतंत्र आएगा और मुसलमानों को अपना मालिक वोट डालकर खलीफा के अतिरिक्त किसी और को चुनना पड़ेगा ।

यानि शरीयत में लोकतंत्र की तो कोई जगह ही नही ।

हे मोमिनो शरीयत में कहीं नही लिखा कि एक दिन मुसलामानों को भारत नामक देश में रहकर सब्सिडी लेकर हज़ यात्रा भी क़र्ज़ के भारतीय रुपयों से करनी पड़ेगी ।

शरीयत या कुरआन में कहीं नही लिखा की आप किसी लोकतांत्रिक देश में सब्सिडी का तेल, चीनी, दाना - पानी प्रयोग करके अपने जन्नत जाने के रास्ते में रुकावट डालोगे ।

अतः हे प्यारे मोमिनो आप कृपया या तो शरीयत और कुरआन की रौशनी में वही करो जो लिखा है, वही खाओ जो हलाल है या खुद को पूर्णतः भारतीय व्यवस्थानुसार ढालने का कष्ट करो।
देवबंदी - बरेलवियों आदि सभी से अपेक्षा है की मुस्लिमों के चुनाव लड़ने पर रोक के लिए, सब्सिडी लेने के खिलाफ तथा वोट डालने के खिलाफ या तो फ़तवा जारी करें अन्यथा शरीयत और कुरआन से ऊपर संविधान को मानें और तीन तलाक, हलाला, बुर्खा प्रथा, उर्दू - फ़ारसी की पढ़ाई, पर रोक लगाएं और सभी भारतीयों की तरह केवल लोकतंत्र में विश्वास करें।

है  दम और ईमान ये सब करने का ?

राष्ट्रवादी सभी भाईयों को
जय श्रीराम
जय हिंद
जय माँ भारती
वंदे मातरम 💐💐💐

महान नही शैतान था अकबर .AKBAR WAS A GREAT DEMON

अकबर के समय के इतिहास लेखक अहमद यादगार ने लिखा-

“बैरम खाँ ने निहत्थे और बुरी तरह घायल हिन्दू राजा हेमू के हाथ पैर बाँध दिये और उसे नौजवान शहजादे के पास ले गया और बोला, आप अपने पवित्र हाथों से इस काफिर का कत्ल कर दें और”गाज़ी”की उपाधि कुबूल करें, और शहजादे ने उसका सिर उसके अपवित्र धड़ से अलग कर दिया।” (नवम्बर, ५ AD १५५६)
(तारीख-ई-अफगान,अहमद यादगार,अनुवाद एलियट और डाउसन, खण्ड VI, पृष्ठ ६५-६६)
इस तरह अकबर ने १४ साल की आयु में ही गाज़ी (काफिरों का कातिल) होने का सम्मान पाया।
इसके बाद हेमू के कटे सिर को काबुल भिजवा दिया और धड़ को दिल्ली के दरवाजे पर टांग दिया।
अबुल फजल ने आगे लिखा – ”हेमू के पिता को जीवित ले आया गया और नासिर-उल-मलिक के सामने पेश किया गया जिसने उसे इस्लाम कबूल करने का आदेश दिया, किन्तु उस वृद्ध पुरुष ने उत्तर दिया, ”मैंने अस्सी वर्ष तक अपने ईश्वर की पूजा की है; मै अपने धर्म को कैसे त्याग सकता हूँ?
मौलाना परी मोहम्मद ने उसके उत्तर को अनसुना कर अपनी तलवार से उसका सर काट दिया।”
(अकबर नामा, अबुल फजल : एलियट और डाउसन, पृष्ठ २१)
इस विजय के तुरन्त बाद अकबर ने काफिरों के कटे हुए सिरों से एक ऊँची मीनार बनवायी।
२ सितम्बर १५७३ को भी अकबर ने अहमदाबाद में २००० दुश्मनों के सिर काटकर अब तक की सबसे ऊँची सिरों की मीनार बनवायी और अपने दादा बाबर का रिकार्ड तोड़ दिया। (मेरे पिछले लेखों में पढ़िए) यानी घर का रिकार्ड घर में ही रहा।
अकबरनामा के अनुसार ३ मार्च १५७५ को अकबर ने बंगाल विजय के दौरान इतने सैनिकों और नागरिकों की हत्या करवायी कि उससे कटे सिरों की आठ मीनारें बनायी गयीं। यह फिर से एक नया रिकार्ड था। जब वहाँ के हारे हुए शासक दाउद खान ने मरते समय पानी माँगा तो उसे जूतों में भरकर पानी पीने के लिए दिया गया।
अकबर की चित्तौड़ विजय के विषय में अबुल फजल ने
लिखा था- ”अकबर के आदेशानुसार प्रथम ८०००
राजपूत योद्धाओं को बंदी बना लिया गया, और बाद में उनका वध कर दिया गया। उनके साथ-साथ विजय के बाद प्रात:काल से दोपहर तक अन्य ४०००० किसानों का भी वध कर दिया गया जिनमें ३००० बच्चे और बूढ़े थे।”
(अकबरनामा, अबुल फजल, अनुवाद एच. बैबरिज)
चित्तौड़ की पराजय के बाद महारानी जयमाल मेतावाड़िया समेत १२००० क्षत्राणियों ने मुगलों के हरम में जाने की अपेक्षा जौहर की अग्नि में स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। जरा कल्पना कीजिए विशाल गड्ढों में धधकती आग और दिल दहला देने वाली चीखों-पुकार के बीच उसमें कूदती १२००० महिलाएँ ।
अपने हरम को सम्पन्न करने के लिए अकबर ने अनेकों हिन्दू राजकुमारियों के साथ जबरनठ शादियाँ की थी परन्तु कभी भी, किसी मुगल महिला को हिन्दू से शादी नहीं करने दी। केवल अकबर के शासनकाल में 38 राजपूत राजकुमारियाँ शाही खानदान में ब्याही जा चुकी थीं। १२ अकबर को, १७ शाहजादा सलीम को, छः दानियाल को, २ मुराद को और १ सलीम के पुत्र खुसरो को।
अकबर की गंदी नजर गौंडवाना की विधवा रानी दुर्गावती पर थी
”सन् १५६४ में अकबर ने अपनी हवस की शांति के लिए रानी दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया किन्तु एक वीरतापूर्ण संघर्ष के बाद अपनी हार निश्चित देखकर रानी ने अपनी ही छाती में छुरा घोंपकर आत्म हत्या कर ली। किन्तु उसकी बहिन और पुत्रवधू को को बन्दी बना लिया गया। और अकबर ने उसे अपने हरम में ले लिया। उस समय अकबर की उम्र २२ वर्ष और रानी दुर्गावती की ४० वर्ष थी।”
(आर. सी. मजूमदार, दी मुगल ऐम्पायर, खण्ड VII)
सन् 1561 में आमेर के राजा भारमल और उनके ३ राजकुमारों को यातना दे कर उनकी पुत्री को साम्बर से अपहरण कर अपने हरम में आने को मज़बूर किया।
औरतों का झूठा सम्मान करने वाले अकबर ने सिर्फ अपनी हवस मिटाने के लिए न जाने कितनी मुस्लिम औरतों की भी अस्मत लूटी थी। इसमें मुस्लिम नारी चाँद बीबी का नाम भी है।
अकबर ने अपनी सगी बेटी आराम बेगम की पूरी जिंदगी शादी नहीं की और अंत में उस की मौत अविवाहित ही जहाँगीर के शासन काल में हुई।
सबसे मनगढ़ंत किस्सा कि अकबर ने दया करके सतीप्रथा पर रोक लगाई; जबकि इसके पीछे उसका मुख्य मकसद केवल यही था की राजवंशीय हिन्दू नारियों के पतियों को मरवाकर एवं उनको सती होने से रोककर अपने हरम में डालकर एेय्याशी करना।
राजकुमार जयमल की हत्या के पश्चात अपनी अस्मत बचाने को घोड़े पर सवार होकर सती होने जा रही उसकी पत्नी को अकबर ने रास्ते में ही पकड़ लिया।
शमशान घाट जा रहे उसके सारे सम्बन्धियों को वहीं से कारागार में सड़ने के लिए भेज दिया और राजकुमारी को अपने हरम में ठूंस दिया ।
इसी तरह पन्ना के राजकुमार को मारकर उसकी विधवा पत्नी का अपहरण कर अकबर ने अपने हरम में ले लिया।
अकबर औरतों के लिबास में मीना बाज़ार जाता था जो हर नये साल की पहली शाम को लगता था। अकबर अपने दरबारियों को अपनी स्त्रियों को वहाँ सज-धज कर भेजने का आदेश देता था। मीना बाज़ार में जो औरत अकबर को पसंद आ जाती, उसके महान फौजी उस औरत को उठा ले जाते और कामी अकबर की अय्याशी के लिए हरम में पटक देते। अकबर महान उन्हें एक रात से लेकर एक महीने तक अपनी हरम में खिदमत का मौका देते थे। जब शाही दस्ते शहर से बाहर जाते थे तो अकबर के हरम
की औरतें जानवरों की तरह महल में बंद कर दी जाती थीं।
अकबर ने अपनी अय्याशी के लिए इस्लाम का भी दुरुपयोग किया था। चूँकि सुन्नी फिरके के अनुसार एक मुस्लिम एक साथ चार से अधिक औरतें नहीं रख सकता और जब अकबर उस से अधिक औरतें रखने लगा तो काजी ने उसे रोकने की कोशिश की। इस से नाराज होकर अकबर ने उस सुन्नी काजी को हटा कर शिया काजी को रख लिया क्योंकि शिया फिरके में असीमित और अस्थायी शादियों की इजाजत है , ऐसी शादियों को अरबी में “मुतअ” कहा जाता है।
अबुल फज़ल ने अकबर के हरम को इस तरह वर्णित किया है-
“अकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं और ये पांच हजार औरतें उसकी ३६ पत्नियों से अलग थीं। शहंशाह के महल के पास ही एक शराबखाना बनाया गया था। वहाँ इतनी वेश्याएं इकट्ठी हो गयीं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल हो गयी। अगर कोई दरबारी किसी नयी लड़की को घर ले जाना चाहे तो उसको अकबर से आज्ञा लेनी पड़ती थी। कई बार सुन्दर लड़कियों को ले जाने के लिए लोगों में झगड़ा भी हो जाता था। एक बार अकबर ने खुद कुछ वेश्याओं को बुलाया और उनसे पूछा कि उनसे सबसे पहले भोग किसने किया”।
बैरम खान जो अकबर के पिता जैसा और संरक्षक था,
उसकी हत्या करके इसने उसकी पत्नी अर्थात अपनी माता के समान स्त्री से शादी की ।
इस्लामिक शरीयत के अनुसार किसी भी मुस्लिम राज्य में रहने वाले गैर मुस्लिमों को अपनी संपत्ति और स्त्रियों को छिनने से बचाने के लिए इसकी कीमत देनी पड़ती थी जिसे जजिया कहते थे। कुछ अकबर प्रेमी कहते हैं कि अकबर ने जजिया खत्म कर दिया था। लेकिन इस बात का इतिहास में एक जगह भी उल्लेख नहीं! केवल इतना है कि यह जजिया रणथम्भौर के लिए माफ करने की शर्त रखी गयी थी।
रणथम्भौर की सन्धि में बूंदी के सरदार को शाही हरम में औरतें भेजने की “रीति” से मुक्ति देने की बात लिखी गई थी। जिससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अकबर ने युद्ध में हारे हुए हिन्दू सरदारों के परिवार की सर्वाधिक सुन्दर महिला को मांग लेने की एक परिपाटी बना रखी थीं और केवल बूंदी ही इस क्रूर रीति से बच पाया था।
यही कारण था की इन मुस्लिम सुल्तानों के काल में हिन्दू स्त्रियों के जौहर की आग में जलने की हजारों घटनाएँ हुईं
जवाहर लाल नेहरु ने अपनी पुस्तक ”डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” में अकबर को ‘महान’ कहकर उसकी प्रशंसा की है। हमारे कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने भी अकबर को एक परोपकारी उदार, दयालु और धर्मनिरपेक्ष शासक बताया है।
अकबर के दादा बाबर का वंश तैमूरलंग से था और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की नसों में एशिया की दो प्रसिद्ध आतंकी और खूनी जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था। जिसके खानदान के सारे पूर्वज दुनिया के सबसे बड़े जल्लाद थे और अकबर के बाद भी जहाँगीर और औरंगजेब दुनिया के सबसे बड़े दरिन्दे थे तो ये बीच में महानता की पैदाईश कैसे हो गयी।
अकबर के जीवन पर शोध करने वाले इतिहासकार विंसेट स्मिथ ने साफ़ लिखा है की अकबर एक दुष्कर्मी, घृणित एवं नृशंश हत्याकांड करने वाला क्रूर शाशक था।
विन्सेंट स्मिथ ने किताब ही यहाँ से शुरू की है कि “अकबर भारत में एक विदेशी था. उसकी नसों में एक बूँद खून भी भारतीय नहीं था । अकबर मुग़ल से ज्यादा एक तुर्क था”।
चित्तौड़ की विजय के बाद अकबर ने कुछ फतहनामें प्रसारित करवाये थे। जिससे हिन्दुओं के प्रति उसकी गहन आन्तरिक घृणा प्रकाशित हो गई थी।
उनमें से एक फतहनामा पढ़िये-
”अल्लाह की खयाति बढ़े इसके लिए हमारे कर्तव्य परायण मुजाहिदीनों ने अपवित्र काफिरों को अपनी बिजली की तरह चमकीली कड़कड़ाती तलवारों द्वारा वध कर दिया। ”हमने अपना बहुमूल्य समय और अपनी शक्ति घिज़ा (जिहाद) में ही लगा दिया है और अल्लाह के सहयोग से काफिरों के अधीन बस्तियों, किलों, शहरों को विजय कर अपने अधीन कर लिया है, कृपालु अल्लाह उन्हें त्याग दे और उन सभी का विनाश कर दे। हमने पूजा स्थलों उसकी मूर्तियों को और काफिरों के अन्य स्थानों का विध्वंस कर दिया है।”
(फतहनामा-ई-चित्तौड़ मार्च १५८६,नई दिल्ली)
महाराणा प्रताप के विरुद्ध अकबर के अभियानों के लिए
सबसे बड़ा प्रेरक तत्व था इस्लामी जिहाद की भावना जो उसके अन्दर कूट-कूटकर भरी हुई थी।
अकबर के एक दरबारी इमाम अब्दुल कादिर बदाउनी ने अपने इतिहास अभिलेख, ‘मुन्तखाव-उत-तवारीख’ में लिखा था कि १५७६ में जब शाही फौजें राणाप्रताप के खिलाफ युद्ध के लिए अग्रसर हो रहीं थीं तो मैनें (बदाउनीने) ”युद्ध अभियान में शामिल होकर हिन्दुओं के रक्त से अपनी इस्लामी दाढ़ी को भिगोंकर शाहंशाह से भेंट की अनुमति के लिए प्रार्थना की।”मेरे व्यक्तित्व और जिहाद के प्रति मेरी निष्ठा भावना से अकबर इतना प्रसन्न हुआ कि उन्होनें प्रसन्न होकर मुझे मुठ्ठी भर सोने की मुहरें दे डालीं।” (मुन्तखाब-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, पृष्ठ ३८३,अनुवाद वी. स्मिथ, अकबर दी ग्रेट मुगल, पृष्ठ १०८)
बदाउनी ने हल्दी घाटी के युद्ध में एक मनोरंजक घटना के बारे में लिखा था-
”हल्दी घाटी में जब युद्ध चल रहा था और अकबर की सेना से जुड़े राजपूत, और राणा प्रताप की सेना के राजपूत जब परस्पर युद्धरत थे और उनमें कौन किस ओर है, भेद कर पाना असम्भव हो रहा था, तब मैनें शाही फौज के अपने सेना नायक से पूछा कि वह किस पर गोली चलाये ताकि शत्रु ही मरे।
तब कमाण्डर आसफ खाँ ने उत्तर दिया कि यह जरूरी नहीं कि गोली किसको लगती है क्योंकि दोनों ओर से युद्ध करने वाले काफिर हैं, गोली जिसे भी लगेगी काफिर ही मरेगा, जिससे लाभ इस्लाम को ही होगा।”
(मुन्तखान-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी,
खण्ड II,अनु अकबर दी ग्रेट मुगल : वी. स्मिथ पुनः मुद्रित १९६२; हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल, दी मुगल ऐम्पायर :आर. सी. मजूमदार, खण्ड VII, पृष्ठ १३२ तृतीय संस्करण)
जहाँगीर ने, अपनी जीवनी, ”तारीख-ई-सलीमशाही” में लिखा था कि ‘ ‘अकबर और जहाँगीर के शासन काल में पाँच से छः लाख की संख्या में हिन्दुओं का वध हुआ था।”
(तारीख-ई-सलीम शाही, अनु. प्राइस, पृष्ठ २२५-२६)
जून 1561- एटा जिले के (सकित परंगना) के 8 गावों की हिंदू जनता के विरुद्ध अकबर ने खुद एक आक्रमण का संचालन किया और परोख नाम के गाँव में मकानों में बंद करके १००० से ज़्यादा हिंदुओं को जिंदा जलवा दिया था।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनके इस्लाम कबूल ना करने के कारण ही अकबर ने क्रुद्ध होकर ऐसा किया।
थानेश्वर में दो संप्रदायों कुरु और पुरी के बीच पूजा की जगह को लेकर विवाद चल रहा था. अकबर ने आदेश
दिया कि दोनों आपस में लड़ें और जीतने वाला जगह पर कब्ज़ा कर ले। उन मूर्ख लोगों ने आपस में ही अस्त्र शस्त्रों से लड़ाई शुरू कर दी। जब पुरी पक्ष जीतने लगा तो अकबर ने अपने सैनिकों को कुरु पक्ष की तरफ से लड़ने का आदेश दिया. और अंत में इसने दोनों ही तरफ के लोगों को अपने सैनिकों से मरवा डाला और फिर अकबर महान जोर से हंसा।
एक बार अकबर शाम के समय जल्दी सोकर उठ गया तो उसने देखा कि एक नौकर उसके बिस्तर के पास सो रहा है। इससे उसको इतना गुस्सा आया कि नौकर को मीनार से नीचे फिंकवा दिया।
अगस्त १६०० में अकबर की सेना ने असीरगढ़ का किला घेर लिया पर मामला बराबरी का था।विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर ने एक अद्भुत तरीका सोचा। उसने किले के राजा मीरां बहादुर को संदेश भेजकर अपने सिर की कसम खाई कि उसे सुरक्षित वापस जाने देगा। जब मीरां शान्ति के नाम पर बाहर आया तो उसे अकबर के सामने सम्मान दिखाने के लिए तीन बार झुकने का आदेश दिया गया क्योंकि अकबर महान को यही पसंद था।
उसको अब पकड़ लिया गया और आज्ञा दी गयी कि अपने सेनापति को कहकर आत्मसमर्पण करवा दे। मीराँ के सेनापति ने इसे मानने से मना कर दिया और अपने लड़के को अकबर के पास यह पूछने भेजा कि उसने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी? अकबर ने उसके बच्चे से पूछा कि क्या तेरा पिता आत्मसमर्पण के लिए तैयार है? तब बालक ने कहा कि चाहे राजा को मार ही क्यों न डाला जाए उसका पिता समर्पण नहीं करेगा। यह सुनकर अकबर महान ने उस बालक को मार डालने का आदेश दिया। यह घटना अकबर की मृत्यु से पांच साल पहले की ही है।
हिन्दुस्तानी मुसलमानों को यह कह कर बेवकूफ बनाया जाता है कि अकबर ने इस्लाम की अच्छाइयों को पेश किया. असलियत यह है कि कुरआन के खिलाफ जाकर ३६ शादियाँ करना, शराब पीना, नशा करना, दूसरों से अपने आगे सजदा करवाना आदि इस्लाम के लिए हराम है और इसीलिए इसके नाम की मस्जिद भी हराम है।
अकबर स्वयं पैगम्बर बनना चाहता था इसलिए उसने अपना नया धर्म “दीन-ए-इलाही – ﺩﯾﻦ ﺍﻟﻬﯽ ” चलाया। जिसका एकमात्र उद्देश्य खुद की बड़ाई करवाना था। यहाँ तक कि मुसलमानों के कलमें में यह शब्द “अकबर खलीफतुल्लाह – ﺍﻛﺒﺮ ﺧﻠﻴﻔﺔ ﺍﻟﻠﻪ ” भी जुड़वा दिया था।
उसने लोगों को आदेश दिए कि आपस में अस्सलाम वालैकुम नहीं बल्कि “अल्लाह ओ अकबर” कहकर एक दूसरे का अभिवादन किया जाए। यही नहीं अकबर ने हिन्दुओं को गुमराह करने के लिए एक फर्जी उपनिषद् “अल्लोपनिषद” बनवाया था जिसमें अरबी और संस्कृत मिश्रित भाषा में मुहम्मद को अल्लाह का रसूल और अकबर को खलीफा बताया गया था। इस फर्जी उपनिषद् का उल्लेख महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में किया है।
उसके चाटुकारों ने इस धूर्तता को भी उसकी उदारता की तरह पेश किया। जबकि वास्तविकता ये है कि उस धर्म को मानने वाले अकबरनामा में लिखित कुल १८ लोगों में से केवल एक हिन्दू बीरबल था।
अकबर ने अपने को रूहानी ताकतों से भरपूर साबित करने के लिए कितने ही झूठ बोले। जैसे कि उसके पैरों की धुलाई करने से निकले गंदे पानी में अद्भुत ताकत है जो रोगों का इलाज कर सकता है। अकबर के पैरों का पानी लेने के लिए लोगों की भीड़ लगवाई जाती थी। उसके दरबारियों को तो इसलिए अकबर के नापाक पैर का चरणामृत पीना पड़ता था ताकि वह नाराज न हो जाए।
अकबर ने एक आदमी को केवल इसी काम पर रखा था कि वह उनको जहर दे सके जो लोग उसे पसंद नहीं।
अकबर महान ने न केवल कम भरोसेमंद लोगों का कतल
कराया बल्कि उनका भी कराया जो उसके भरोसे के आदमी थे जैसे- बैरम खान (अकबर का गुरु जिसे मारकर अकबर ने उसकी बीवी से निकाह कर लिया), जमन, असफ खान (इसका वित्त मंत्री), शाह मंसूर, मानसिंह, कामरान का बेटा, शेख अब्दुरनबी, मुइजुल मुल्क, हाजी इब्राहिम और बाकी सब जो इसे नापसंद थे। पूरी सूची स्मिथ की किताब में दी हुई है।
अकबर के चाटुकारों ने राजा विक्रमादित्य के दरबार की कहानियों के आधार पर उसके दरबार और नौ रत्नों की कहानी गढ़ी। पर असलियत यह है कि अकबर अपने
सब दरबारियों को मूर्ख समझता था। उसने स्वयं कहा था कि वह अल्लाह का शुक्रगुजार है कि उसको योग्य दरबारी नहीं मिले वरना लोग सोचते कि अकबर का राज उसके दरबारी चलाते हैं वह खुद नहीं।
अकबरनामा के एक उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि उसके हिन्दू दरबारियों का प्रायः अपमान हुआ करता था। ग्वालियर में जन्में संगीत सम्राट रामतनु पाण्डेय उर्फ तानसेन की तारीफ करते-करते मुस्लिम दरबारी उसके मुँह में चबाया हुआ पान ठूँस देते थे। भगवन्त दास और दसवंत ने सम्भवत: इसी लिए आत्महत्या कर ली थी।
प्रसिद्ध नवरत्न टोडरमल अकबर की लूट का हिसाब करता था। इसका काम था जजिया न देने वालों की औरतों को हरम का रास्ता दिखाना। वफादार होने के बावजूद अकबर ने एक दिन क्रुद्ध होकर उसकी पूजा की मूर्तियाँ तुड़वा दी।
जिन्दगी भर अकबर की गुलामी करने के बाद टोडरमल ने अपने जीवन के आखिरी समय में अपनी गलती मान कर दरबार से इस्तीफा दे दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए प्राण त्यागने की इच्छा से वाराणसी होते हुए हरिद्वार चला गया और वहीं मरा।
लेखक और नवरत्न अबुल फजल को स्मिथ ने अकबर का अव्वल दर्जे का निर्लज्ज चाटुकार बताया। बाद में जहाँगीर ने इसे मार डाला।
फैजी नामक रत्न असल में एक साधारण सा कवि था जिसकी कलम अपने शहंशाह को प्रसन्न करने के लिए ही चलती थी।
बीरबल शर्मनाक तरीके से एक लड़ाई में मारा गया। बीरबल अकबर के किस्से असल में मन बहलाव की बातें हैं जिनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं। ध्यान रहे
कि ऐसी कहानियाँ दक्षिण भारत में तेनालीराम के नाम से
भी प्रचलित हैं।
एक और रत्न शाह मंसूर दूसरे रत्न अबुल फजल के हाथों अकबर के आदेश पर मार डाला गया ।
मान सिंह जो देश में पैदा हुआ सबसे नीच गद्दार था, ने अपनी बेटी तो अकबर को दी ही जागीर के लालच में कई और राजपूत राजकुमारियों को तुर्क हरम में पहुँचाया। बाद में जहांगीर ने इसी मान सिंह की पोती को भी अपने हरम में खींच लिया।
मानसिंह ने पूरे राजपूताने के गौरव को कलंकित किया था। यहाँ तक कि उसे अपना आवास आगरा में बनाना पड़ा क्योंकि वो राजस्थान में मुँह दिखाने के लायक नहीं था। यही मानसिंह जब संत तुलसीदास से मिलने गया तो अकबर ने इस पर गद्दारी का संदेह कर दूध में जहर देकर मरवा डाला और इसके पिता भगवान दास ने लज्जित होकर आत्महत्या कर ली।
इन नवरत्नों को अपनी बीवियां, लडकियां, बहनें तो अकबर की खिदमत में भेजनी पड़ती ही थीं ताकि बादशाह सलामत उनको भी सलामत रखें, और साथ ही अकबर महान के पैरों पर डाला गया पानी भी इनको पीना पड़ता था जैसा कि ऊपर बताया गया है। अकबर शराब और अफीम का इतना शौक़ीन था, कि अधिकतर समय नशे में धुत रहता था।
अकबर के दो बच्चे नशाखोरी की आदत के चलते अल्लाह को प्यारे हो गये।
हमारे फिल्मकार अकबर को सुन्दर और रोबीला दिखाने के लिए रितिक रोशन जैसे अभिनेताओं को फिल्मों में पेश करते हैं परन्तु विन्सेंट स्मिथ अकबर के बारे में लिखते हैं-
“अकबर एक औसत दर्जे की लम्बाई का था। उसके बाएं पैर में लंगड़ापन था। उसका सिर अपने दायें कंधे की तरफ झुका रहता था। उसकी नाक छोटी थी जिसकी हड्डी बाहर को निकली हुई थी। उसके नाक के नथुने ऐसे दिखते थे जैसे वो गुस्से में हो। आधे मटर के दाने के बराबर एक मस्सा उसके होंठ और नथुनों को मिलाता था।
अकबर का दरबारी लिखता है कि अकबर ने इतनी ज्यादा पीनी शुरू कर दी थी कि वह मेहमानों से बात
करता करता भी नींद में गिर पड़ता था। वह जब ज्यादा पी लेता था तो आपे से बाहर हो जाता था और पागलों जैसी हरकतें करने लगता।
अकबर महान के खुद के पुत्र जहाँगीर ने लिखा है कि अकबर कुछ भी लिखना पढ़ना नहीं जानता था पर यह दिखाता था कि वह बड़ा भारी विद्वान है।
अकबर ने एक ईसाई पुजारी को एक रूसी गुलाम का पूरा परिवार भेंट में दिया। इससे पता चलता है कि अकबर गुलाम रखता था और उन्हें वस्तु की तरह भेंट में दिया और लिया करता था।
कंधार में एक बार अकबर ने बहुत से लोगों को गुलाम बनाया क्योंकि उन्होंने १५८१-८२ में इसकी किसी नीति का विरोध किया था। बाद में इन गुलामों को मंडी में बेच कर घोड़े खरीदे गए ।
अकबर बहुत नए तरीकों से गुलाम बनाता था। उसके आदमी किसी भी घोड़े के सिर पर एक फूल रख देते थे। फिर बादशाह की आज्ञा से उस घोड़े के मालिक के सामने दो विकल्प रखे जाते थे, या तो वह अपने घोड़े को भूल जाये, या अकबर की वित्तीय गुलामी क़ुबूल करे।
जब अकबर मरा था तो उसके पास दो करोड़ से ज्यादा अशर्फियाँ केवल आगरे के किले में थीं। इसी तरह के और
खजाने छह और जगह पर भी थे। इसके बावजूद भी उसने १५९५-१५९९ की भयानक भुखमरी के समय एक सिक्का भी देश की सहायता में खर्च नहीं किया।
अकबर के सभी धर्म के सम्मान करने का सबसे बड़ा सबूत-
अकबर ने गंगा,यमुना,सरस्वती के संगम का तीर्थनगर “प्रयागराज” जो एक काफिर नाम था को बदलकर इलाहाबाद रख दिया था। वहाँ गंगा के तटों पर रहने वाली सारी आबादी का क़त्ल करवा दिया और सब इमारतें गिरा दीं क्योंकि जब उसने इस शहर को जीता तो वहाँ की हिन्दू जनता ने उसका इस्तकबाल नहीं किया। यही कारण है कि प्रयागराज के तटों पर कोई पुरानी इमारत नहीं है। अकबर ने हिन्दू राजाओं द्वारा निर्मित संगम प्रयाग के किनारे के सारे घाट तुड़वा डाले थे। आज भी वो सारे साक्ष्य वहाँ मौजूद हैं।
२८ फरवरी १५८० को गोवा से एक पुर्तगाली मिशन अकबर के पास पंहुचा और उसे बाइबल भेंट की जिसे इसने बिना खोले ही वापस कर दिया।
4 अगस्त १५८२ को इस्लाम को अस्वीकार करने के कारण सूरत के २ ईसाई युवकों को अकबर ने अपने हाथों से क़त्ल किया था जबकि इसाईयों ने इन दोनों युवकों को छोड़ने के लिए १००० सोने के सिक्कों का सौदा किया था। लेकिन उसने क़त्ल ज्यादा सही समझा । सन् 1582 में बीस मासूम बच्चों पर भाषा परीक्षण किया और ऐसे घर में रखा जहाँ किसी भी प्रकार की आवाज़ न जाए और उन मासूम बच्चों की ज़िंदगी बर्बाद कर दी वो गूंगे होकर मर गये । यही परीक्षण दोबारा 1589 में बारह बच्चों पर किया ।
सन् 1567 में नगर कोट को जीत कर कांगड़ा देवी मंदिर की मूर्ति को खण्डित की और लूट लिया फिर गायों की हत्या कर के गौ रक्त को जूतों में भरकर मंदिर की प्राचीरों पर छाप लगाई ।
जैन संत हरिविजय के समय सन् 1583-85 को जजिया कर और गौ हत्या पर पाबंदी लगाने की झूठी घोषणा की जिस पर कभी अमल नहीं हुआ।
एक अंग्रेज रूडोल्फ ने अकबर की घोर निंदा की।
कर्नल टोड लिखते हैं कि अकबर ने एकलिंग की मूर्ति तोड़ डाली और उस स्थान पर नमाज पढ़ी।
1587 में जनता का धन लूटने और अपने खिलाफ हो रहे विरोधों को ख़त्म करने के लिए अकबर ने एक आदेश पारित किया कि जो भी उससे मिलना चाहेगा उसको अपनी उम्र के बराबर मुद्राएँ उसको भेंट में देनी पड़ेगी।
जीवन भर इससे युद्ध करने वाले महान महाराणा प्रताप जी से अंत में इसने खुद ही हार मान ली थी यही कारण है कि अकबर के बार बार निवेदन करने पर भी जीवन भर जहाँगीर केवल ये बहाना करके महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह से युद्ध करने नहीं गया की उसके पास हथियारों और सैनिकों की कमी है..जबकि असलियत ये थी की उसको अपने बाप का बुरा हश्र याद था।
विन्सेंट स्मिथ के अनुसार अकबर ने मुजफ्फर शाह को हाथी से कुचलवाया। हमजबान की जबान ही कटवा डाली। मसूद हुसैन मिर्ज़ा की आँखें सीकर बंद कर दी गयीं। उसके 300 साथी उसके सामने लाये गए और उनके चेहरों पर अजीबोगरीब तरीकों से गधों, भेड़ों और कुत्तों की खालें डाल कर काट डाला गया।
मुग़ल आक्रमणकारी थे यह सिद्ध हो चुका है। मुगल दरबार तुर्क एवं ईरानी शक्ल ले चुका था। कभी भारतीय न बन सका। भारतीय राजाओं ने लगातार संघर्ष कर मुगल साम्राज्य को कभी स्थिर नहीं होने दिया।

देशभक्ति क्या है ???


#मुसलमानों की मैं तारीफ करूँगा कि जब कभी उनको अवसर मिलता है ये बताने का .....कि वो धर्म और देश में किसे चुनेंगे ,

वो बेबाक बोलते है .....धर्म को ।

सही भी है , किसी #पाकिस्तानी मुसलमान और #भारत के बीच अगर चुनने की नौबत आ जाए , तो वो बेझिझक अपना घोषित पक्ष चुन सकते है । जिसमे किसी को भी आश्चर्य नही होगा ।

आखिर यूँ ही पाकिस्तान के केंद्रीय मंत्री का ये बयान नही आता कि हिंदुस्तान में हमारे 25 करोड़ सिपाही है ।

दिक्कत तो वहाँ है , जहाँ रातो दिन देशभक्ति की लोरिया सुनने के बाद भी जरुरत के समय पीठ दिखाकर भागते युवक दिखाई देते है ।

#जेएनयू वाले पूछते है , कि कश्मीर की आज़ादी की मांग करने से कोई देशद्रोही  कैसे हो जाता है ???

रविश कुमार के मुताबिक अपने हक़ की बात करना देश द्रोह कैसे हो सकता है ???
फिर ऐसी ही तो कुछ मांगे #नक्सली और #कश्मीरी भी करते रहे है । क्या वो भी देश द्रोही है ।

और ऐसे समय में जब बात बेबात असहिष्णुता और देश छोड़ने की बाते आम है , देशभक्ति कहाँ रह जाती है उस समय ।
यूपीएससी की परीक्षा पास कर #बीएसएफ में नियुक्ति मिलने पर 60 फीसद छात्रों ने नौकरी छोड़ दी ।
जब कारण पूछा गया तो बीएसएफ पर बढ़ते हमले और जमीनी समस्याओं से जुडी मीडिया रिपोर्ट्स को वजह बताया गया ।

यही छात्र जब इंटरव्यू बोर्ड के सामने होते है तो विश्वास कीजियेगा ...... खुद को देशभक्त साबित करने के लिए सीना चीर कर दिखाने को भी तैयार मिलते है ।
मगर वास्तविक परिस्थितियों में वही अवसर मिलने पर वो मैदान छोड़ कर गायब हो गए ।

हम किस मुह से चीन , जापान और इजराइल जैसे देशों का मुकाबला करने की बात कर सकते है ।
जब जरूरत के समय हर बार हमें शर्मिदा होना पड़ता है ।
दरअसल हज़ारो सालो की गुलामी ने हमारे  अंदर मौकापरस्ती कूट कूट कर भर दी है ।

इसके प्रमाण समय समय पर दिखते रहे है ।

1857 की क्रांति के समय बड़ा तबका जो आर्थिक रूप से सम्पन्न था , वो अंग्रेजो के साथ खड़ा  था ।
1962 के युद्ध में केरल , पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकारे चीन के पक्ष में खुल कर आवाज बुलंद कर रही थी ।

आज भी भारतीय विश्व में सबसे अधिक पलायन कर सुविधाजनक जगहों पर बसने को तरजीह दे रहे है ।

जरा अन्य देशों के उदाहरण देखिए
चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर , अपने मूल निवासियों से तिब्बत में बसने का निवेदन किया , जिससे तिब्बती अल्पसंख्यक हो जाए ।
भारी संख्या में चीनी आबादी अपने मूल जन्मस्थान को छोड़ कर वीरान और अभाव ग्रस्त तिब्बत में जा कर बस गई ।
जहाँ बुनियादी सुविधाएं तक नही थी ।

चीन वर्तमान में एक बार फिर #उईगर मुस्लिम बहुल क्षेत्रो में , जहाँ सबसे अधिक समस्याएं है , अपने मूल निवासियों को बसने को कह रहा है ।
और चीन के हर निवासी एक सैनिक की तरह अपनी सरकार के निर्णय का समर्थन कर रहे है ।

इस मामले में जापान और इजराइल के उदाहरण तो भारतीयों के लिए दिवास्वप्न सरीखे ही होंगे ।
जब कि पाकिस्तान और म्यांमार भी इस मामले में हम से कोसो आगे है ।

सिर्फ मौज के लिए सेवा करना , दिखावे की राष्ट्रभक्ति करना ...कहना गलत न होगा हम  देशवासी कम सहयात्री ज्यादा है ।
सिर्फ अपनी मंजिल तक पहुचने के लिए जो देश नाम की गाडी और उसके संसाधनों को दुह रहे है ।

यूपीएससी को चाहिए , जिन लोगो ने बीएसएफ के नाम पर नौकरी ज्वाइन नही की , उन्हें भविष्य में परीक्षा देने के लिए अयोग्य घोषित कर दे ।

क्योकि सिर्फ पिक्चर हाल में ही फिल्म शुरू होने से पहले खड़े हो जाने भर से देश नही बनता ।

भारत की प्रतिभाऐं ... और अन्याय

CBSE ने JEE Mains का result गुरूवार को जारी कर दिया......
वर्ष 2017 का result का cut off इस प्रकार है.....

GEN - 81 marks
OBC - 49 marks
SC - 32 marks
ST - 27 marks

अब एक बार सभी category के cut off पर नजर दौड़ाइये......

GEN Cat. में वही छात्र select हुआ जिसने Exam में 81 या इससे अधिक marks लाया.... यानी कि 80 तक marks लाने वाला छात्र selection के लायक नहीं है.... यानी कि वह प्रतिभावान नहीं है.... यानी कि उसने इस साल Exam की तैयारी में ठीक से मन नहीं लगाया.... यानी कि उसने गलत संगति में पड़ कर इस साल मौका गँवा दिया.... यानी कि उसको अब अगले साल के लिए जम कर तैयारी करनी चाहिए...

या फिर उसकी मर्जी, जो करे......
चाहे तो ग्लानि से फाँसी लगा ले....
चाहे तो घर से भागकर दिल्ली/मुम्बई चला जाए....
चाहे तो यह मान ले कि इस Exam में select होना उसके बस की बात नहीं है...
चाहे तो इससे अलग और कोई Gen Compt. की तैयारी करें...
चाहे तो फिर मां-बाप के साथ किसानी में हाथ बटाये....
चाहे तो पान का छोटा सा गुमटी लगा ले....

सरकार ऐसे मंद बुद्धि छात्रों को ढोने के लिए बाध्य  नहीं है...
भारत निर्माण में ऐसे 80 marks वाले कुपोषित छात्रों का क्या मतलब?
देश की बुनियाद ठोस होनी चाहिए और ठोस बुनियाद के लिए devloped skill का होना जरूरी है... इसलिए सरकार को किसी प्रकार का risk नहीं लेना चाहिए.... नव भारत निर्माण के लिए कोई समझौता नहीं करना चाहिए।

अब आइये SC/ ST के cut off marks पर.....
इस बार SC/ ST Category में वही छात्र select हुआ है जिसने Exam में 27/32 तक marks प्राप्त किया है..... यानी कि 27/32 तक marks लाने वाला छात्र इसके लायक है.... मतलब कि वह प्रतिभा के धनी है..... यानी कि इस साल उसने Exam के लिए जम कर तैयारी की थी ... मतलब कि ऐसे होनहार छात्र को देश निर्माण में अहम योगदान है।
सरकार नहीं चाहती कि ऐसे होनहार छात्र दिल्ली/मुम्बई भागे....
या कोई पान की गुमटी लगाए....
या Gen. Compt. की तैयारी कर कोई clerk बने....
या किसानी करें....
आखिर एक सजग सरकार को इसकी प्रतिभा का अपमान करने का किसने हक दिया है?
नव भारत निर्माण के लिए ऐसे 27/32 वाले प्रतिभावान छात्र को ignore कैसे किया जा सकता है? ...आखिर देश की बुनियाद को मजबूत करने की बात है, कोई मजाक नहीं।
देश के संविधान को शत शत नमन।
Incredible India😟

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आप सभी जरूर पढें ...  आर्मी कोर्ट रूम में आज एक केस अनोखा अड़ा था! छाती तान अफसरों के आगे फौजी बलवान खड़ा था!! बिन हुक्म बलवान तूने ...