Sunday, 18 December 2016

गीता..... जरूर अध्ययन करें...

कर्म करने पर उसका फल अवश्य प्राप्त होता है                                                                                               श्री मद भगवत गीता -अध्याय दो श्लोक 47 वां                                                                                                 "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |  मा कर्म फल हेतुर्भूर्मा त सगर्डोस्तव कर्मणि | |                                  
ऊपर लिखा
श्लोक सबने पड़ा और सुना होगा | और इसका अर्थ भी जानते है |
आप अभी तक इसका एक ही अर्थ जानते है और वह है
" कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर "
लेकिन जो लोग संस्कृत जानते उन्हें ऊपर लिखे श्लोक का अर्थ मालूम होगा | मेने पूरी गीता जी पड़ ली लेकिन मुझे एक भी श्लोक का यह नहीं मिला |
इसका अर्थ यह है की भगवान श्री कृष्ण ने कभी यह कहा ही  नहीं की " कर्म किये जा ,फल की इच्छा मत कर " 
अब आपको यह पड़  कर झटका लगा होगा और आप सोच रहे होंगे की मै धर्म के विरुद्ध बात कर रहा हुँ |  लेकिन जरा सोचिये किसी ने आप से कहा की गीता जी में भगवान श्री कृष्ण ने ऐसा कहा और आपने बिना सोचे समझे इसे मान भी लीया | आपने एक बार भी गीता जी पड़ कर उसका अर्थ जानने की कोशिश ही नहीं की | बस किसी ने कहा और मान लिया |  और तो और सड़क किनारे ठेले पर से  एक एक रुपये में  बिकने वाले स्टीकर ले आये और कहते है की ये "गीता का सार" है | बहुत खूब !  ऊपर लिखे श्लोक का अर्थ ज्ञानी और समझदार लोगो के अनुसार "कर्म किये जा ,फल की इच्छा मत कर " है | किन्तु  मुझ नासमझ के अनुसार इसका अर्थ बिलकुल अलग है |
पहले तो मै इसका शाब्दिक अर्थ बता देता हुँ  "तेरा कर्म करने में ही अधिकार हो , उसके फल में कभी नहीं  |  इसलिए तु कर्मो के फल का हेतु मत हो , तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो | |
" श्लोक का अर्थ पड़ कर आपको समझ आ ही गया होगा की आप अभी तक जो सुनते आ रहे थे उसका इससे दुर दुर तक कोई सम्बन्ध नहीं है । अब हम जरा श्लोक की गहराई में जाते है । " तेरा कर्म करने में ही अधिकार हो " भगवान काम करने के अधिकार की बात कर रहे है जबकि व्यक्ति फल पर अधिकार की बात करता है । यहाँ कर्म का अधिकार दो प्रकार से समझ सकते है । पहला यह की यह कार्य मुझे ही करना होगा यानि कार्य की जिम्मेदारी खुद लेना । दूसरा मै किसी कार्य को बहुत अच्छी तरह से कर सकूँ ताकि सभी यही कहे की काम करने का हक़ तो इसे ही है यानि काम में परफेक्ट होना । यदि आप दोनों तरह से इसे स्वीकार कर ले तो आपको फल की चिंता करने की जरुरत नहीं होगी । एक उदहारण देना चाहुँगा यदि कोई student किसी विषय में अच्छी तैयारी कर ले , उस विषय में पारंगत हो जाए तो उसे परीक्षा फल के बारे में चिंता नहीं होगी । यानि कर्म पर अधिकार कर ले तो फल अपने आप ही प्राप्त होगा । या यह कहा जा सकता है की हमारा ध्यान पूर्ण रूप से कार्य पर ही केंद्रित होना चाहिए । श्लोक की दूसरी पंक्ति में लिखा है "तू कर्मो के फल का हेतु मत हो, तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो । " अर्थात कर्म का जो भी फल हो , अच्छा या बुरा तू उसका कारण अपने को मत समझ । भगवान यहाँ कहना चाह रहे है की यदि तू कर्म में सफल हो गया और जब उसका अच्छा फल प्राप्त होगा तो तुम अहंकारी हो सकते हो । जिससे देर सबेर तुम्हे दुःख ही प्राप्त होगा और यदि तुम कर्म में असफल हुए तो तुम ग्लानि से भर जाओगे । तब भी तुम दुःखी ही होओगे । इसलिए तुम कर्म फल का कारण अपने आप को मत मान । साथ ही दुःख के डर से कर्म करना मत छोड़ देना । क्योकि तुझे कर्म तो करना ही पड़ेगा और उसका फल भी अवश्य प्राप्त होगा ।  मै यहाँ गीता जी का एक और श्लोक यहाँ बताना चाहूंगा तो स्तिथि और साफ हो जाएगी । अध्याय -३ श्लोक -८ - " नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो अकर्मणः |  शरीरयत्रपि च ते न प्रसिध्दचेद कर्मणः | "  "तू नियत कर्म कर , क्योकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं होगा । यहाँ भगवान ने स्पष्ट कहा है की कर्म करने से फल प्राप्त होगा और इस कर्म फल से ही तेरा जीवन निर्वाह होगा । तो दोस्तों अब आपको पता हो चुका होगा की  भगवान श्री कृष्ण ने गीता जी में क्या संदेश दिया । अंतः आप सुनी सुनाई एवं भ्रमित करने वाली बातो को छोड़ कर स्वयं संस्कृत सीखे और गीता जी अध्ययन करे ।

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